हम एक ऐसे आदिवासी समूह से परिचित हो रहे हैं जिसने अपने जीवन का हरएक पल एक जीवित किंवदंती के साथ इस प्राचीन कला के लिए जिया है।- सरत चंद्र राय
मानव सभ्यता के इतिहास में लोहे का स्थान असंदिग्ध है। लोहे की खोज और लौहकला का विकास दुनिया के अलग.अलग क्षेत्रों में 1200 ईसा पूर्व से लेकर 600 ईसा पूर्व के बीच है जिसे लौह युग कहा जाता है। इतिहास में लौहकला का यह सफर मोटे तौर पर पाषाण युग से कांस्य युग तक का है। लौह युग के दौरान एशियाए अफ्रीका और यूरोप के अधिकांश हिस्सों में लौहकला पूरी तरह से विकसित हो चुकी थी तथा लोगों ने लोहे और स्टील के औजारों और हथियारों को बनाना आरंभ कर दिया था। इतिहासकारों का अनुमान है कि मनुष्य ने पूरे कांस्य युग में छिटपुट रूप से लोहे को पिघलाया होगाए क्योंकि कांसे अथवा पीतल की तुलना में वे लोहे को कमतर मानते थे। इसलिए कि शुरुआती लोहे के उपकरण और हथियार उनके पीतल के समकक्ष कठोर या टिकाऊ नहीं होते थे। लेकिन जब मनुष्य ने लोहे को कार्बन के साथ गर्म करके बेहद कठोर लोहा ;स्टीलद्ध बनाना सीख लिया तो इसके निर्माण और प्रयोग में क्रांति आ गई। भारत के असुर आदिवासी उन प्राचीन धातुकर्मी मानव समूहों में से एक हैं जिन्होंने हज़ारों वर्ष पहले लौहकला का अविष्कार कर दुनिया को स्टील दिया। जिसके बाद ही विश्व सभ्यता आधुनिक विकास के इस सोपान तक छलांग लगा पाने में समर्थ हो पाई।
कौन हैं असुरघ्
पौराणिक संस्कृत साहित्य में वर्णित असुर लोग जादुई शक्ति और धातुओं का व्यवाहारिक ज्ञान रखने वाले पूर्व.आर्यन समुदाय हैं। - डॉण् जेण्एचण् हट्टन[1]
असुर कौन हैंघ् यह सवाल भारत में अब तक विवादित है। यह विवाद भारतीय पौराणिक मिथकों एवं महाकाव्यात्मक गाथाओं में वर्णित असुरों के कारण है जिन्हें ष्अमानवीयष् दर्शाया गया है। लेकिन भारतीय झारखंड राज्य के नेतरहाट के पठारों पर रहने और प्राचीन लौहकला का व्यावहारिक ज्ञान रखने वाले असुर आदिवासी समुदाय की प्रवृत्ति और छवि वैसी बिल्कुल नहीं है जो शायद पूर्व या पश्चात् वैदिक काल में हुआ करते थे। फिर भी राय (1915), शास्त्री.बनर्जी (1926), एँड्रेव मैकविलियम (1920), र्यूबेनए (1940), एलविन (1942) आदि समाजविज्ञानियों व मानवशास्त्रियों की मान्यता है कि झारखंड के असुर संभवतः उन्हीं असुरों के वंशज हैं जिनका वर्णन भारतीय पौराणिक मिथकों में किया गया है।
लेउबा ;1963द्ध इससे सहमत भी हैं और असहमत भी हैं। 'द असुर' में वे पहले लिखते हैंए "मैं नृतत्वशास्त्रियों की इस धारणा से सहमत नहीं हूं कि ये वही असुर हैं जिनका वर्णन पूर्व और पश्चात् ऋग्वैदिक साहित्य में हुआ है।"[2] फिर इसी क़िताब में सरत चंद्र राय का हवाला देते हुए वह आगे लिखते हैंए "खूंटी सबडिविजन (अब ज़िला) में खुदाई के दौरान पाए गए अस्थि मृदभांडए तांबा और धातुओं के जेवर तथा टेराकोटा मूर्तियाँ मोहनजोड़ो के अवशेषों से मेल खाते हैं। इस तरह उपलब्ध सारे साक्ष्य साफ तौर पर यही संकेत करते हैं कि नेतरहाट के पठारों पर रहने वाले वर्तमान असुरों का कुछ संबंध पौराणिक संस्कृत साहित्य में वर्णित असुरों से ज़रूर है।"[3] समाजविज्ञानियों में व्याप्त इस दुविधा पर वेरियर एलविन की टिप्पणी हैए "इनकी उत्पत्ति यद्यपि अस्पष्टता के गर्त में है परंतु उन्हें पौराणिक असुरों से जोड़ा जाना एक रोचक धारणा है जो देवताओं के चिर शत्रु थेए धातुकर्मी थे और जिन्होंने लोहा बनाकर पाषाण युग की समाप्ति कर दी थी।"[4]
मानवशास्त्रियों के वर्णनों के अनुसार इस समुदाय के लोग स्वयं को असुर कहते रहे हैंए और यह लेख उन्हीं के वर्णनों पर आधारित हैए साथ ही इस समुदाय के कुछ लोगों से बातचीत भी की गयी है। असुर आदिवासी समुदाय देश के उन 75 आदिवासी समुदायों में से एक हैं जिन्हें भारत सरकार के जनजातीय मंत्रालय ने आदिम जनजाति वर्ग अर्थात विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह यानी के रूप में आज भी ‘असुर’ नाम से ही सूचीबद्ध किया है। मुंडाए संताल (संथाल), हो. खड़िया, असुर आदि आदिवासी समुदाय नृजातीय रूप से एक ही मानववंशी समूह 'प्रोटो ऑस्ट्रालॉयड' (आग्नेय) के अंतर्गत आते हैं[5]।
![चित्र १. असुर लौह कलाकर्मी, नेतरहाट, 1963. फोटो स्रोत: के. के लेउबा की पुस्तक ‘द असुर’, नई दिल्ली: भारतीय आदिम जाति सेवक संघ, 1963 .](https://www.sahapedia.org/sites/default/files/styles/sp_inline_images/public/inline-images/Picture%201_0.jpg?itok=PqXeEMpH)
![चित्र २. वर्तमान में असुर समुदाय (सरना धार्मिक स्थल पर सरहुल पूजा, गांव-जोभीपाट, नेतरहाट, झारखंड) फोटो- वन्दना टेटे, 17 मई, 2019.](https://www.sahapedia.org/sites/default/files/styles/sp_inline_images/public/inline-images/Picture%202_0.jpg?itok=AfYZyxtA)
हे आकाश के पुरखे
हे धरती के पुरखे!
हमलोगों ने देखाए हमलोगों ने खोजा
एकासी मैदान मेंए तेरासी टांड़ में
बारह भाई असुरए और तेरह भाई लोधा
फूंक रहे हैंए धौंक रहे हैं।
आंच लग रही है। धौंके लग रही हैं।
- (‘सोसोबोङा’[6] से उद्धृत)
उपरोक्त मुंडारी लोकगाथा ‘सोसोबोंगा’[7] का हवाला देते हुए सरत चंद्र राय ने मुंडाज एँड देयर कंट्री (1912) में यह स्थापना दी है कि "जब 600 ई.पू. मुंडा लोग (झारखण्ड) में आए थे तो इस (झारखंड) क्षेत्र में असुरों का आधिपत्य था।’’[8] असुर जनजाति का उल्लेख वेदों से लेकर उपनिषद्ए महाभारत आदि ग्रन्थों में अनेकानेक स्थानों पर हुआ है। बनर्जी एवं शास्त्री (1926) ने असुरों की वीरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे पूर्ववैदिक काल से वैदिक काल तक अत्यन्त शक्तिशाली समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित थे। मजुमदार (1926) का मानना है कि असुर साम्राज्य का अन्त आर्यों के आगमन के बाद हुआ। प्रागैतिहासिक संदर्भ में असुरों की चर्चा करते हुए बनर्जी एवं शास्त्री ने असुरों को ही भारत में सिन्धु सभ्यता के प्रतिष्ठापक के रूप में स्वीकार किया है। राय (1915) ने भी मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से असुरों को संबंधित बताया है। साथ ही साथ उन्हें ताम्रए कांस्य एवं लौह युग तक का यात्री माना है। पुराने राँची जिले में असुरों के निवास विवरण देते हुए राय (1920) ने उनके किले एवं कब्रों के अवशेषों से संबंधित लगभग एक सौ स्थानों, जिसका फैलाव इस क्षेत्र में रहा है, की चर्चा की है। लेउबा का मत है कि असुर लोग आदिम समय से ही अपने धातु ज्ञान और लौह कलाकर्म के चलते एक शक्तिशाली समुदाय के रूप में जाने जाते रहे हैं। 1940 में वे लिखते हैंए "ऋग्वेद में असुरों को शक्तिशाली समुदाय के रूप में वर्णन किया गया है। इसकी जांच और यह जानने के लिए कि ये लोग स्वयं को किस रूप में देखते हैं मैं नेतरहाट में बहुत से बुजुर्ग असुरों से मिला। लोदपाट के 70 वर्षीय मंगरा असुर ने बताया कि 'बिर असुर' का अर्थ 'बलवान' होड़ (इंसान) होता है। मैंने जब उससे यह पूछा कि अतीत में असुरों ने ऐसा कौन.सा महत्वपूर्ण कार्य जिससे वे खुद को शक्तिशाली मनुष्य कहते हैं तो इस संबंध में कोई जानकारी उसके पास नहीं थी। लेकिन उसने मुझसे कहा कि प्राचीन समय में उसके पुरखों ने जरूर कुछ ऐसा किया होगा। खैरए सभी उद्देश्यों के अर्थ में असुर का मतलब शक्तिशाली मनुष्य है।"[9]
हम बहुत भाई हैए हम बहुत बहिन हैं
हम केले की खाँदी जैसे हैं
हम फलों के गुच्छे की तरह हैं
पत्थर की तरह हमारी छाती है
अरकंठे की तरह हमारी बाँहें हैं
हमलोग किसी से नहीं डरते
- ('सोसोबोङा' से उद्धृत)
एक तरफ जहाँ विद्वानों में वर्तमान और पौराणिक असुरों के संबंध में विरोधाभासी मान्यताएँ हैंए वहीं गृह मंत्रालयए भारत सरकार ने असुर आदिवासी समुदाय को देश के उन 75 'विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों' की सूची में रखा है जिन्हें पहले आदिम जनजाति कहा जाता था। झारखंड में जिनकी आबादी मुख्य तौर पर गुमलाए लोहरदगाए पलामूए लातेहार जिलों में निवास करती है। इनकी भाषा ष्असुरीष् है जिसे भाषाविदों ने आस्ट्रो एशियाटिक भाषा परिवार के मुंडा समूह में रखा है। 2011 की जनगणना के अनुसार नवगठित झारखंड राज्य में असुर समुदाय की कुल आबादी 7783[10] है।
![चित्र ३. सखुआपानी गांव, नेतरहाट की असुर औरतें पारंपरिक नृत्य के दौरान. फोटो: वंदना टेटे, 25 सितम्बर, 2019.](https://www.sahapedia.org/sites/default/files/styles/sp_inline_images/public/inline-images/Picture%203_0.jpg?itok=pPj-AKa4)
असुर आदिवासी समुदाय के तीन उपवर्ग हैं - बीर असुर, बिरजिया असुर और अगरिया असुर। हालांकि सरकार के अनुसूचित आदिम जनजातीय समूहों की सूची में बिरजिया और अगरिया अब अन्य आदिम जनजाति के रूप में अधिसूचित हैं। असुर समाज 12 गोत्रों में बंटा हुआ है और इनके गोत्र विभिन्न प्रकार के जानवर, पक्षी एवं वनस्पतियों के नाम पर हैं। गोत्र के बाद परिवार सबसे प्रमुख होता है। असुर समाज अपने पारंपरिक पंचायत व स्वशासन व्यवस्था से शासित होता है। असुर पंचायत के अधिकारी महतो, बैगा, पुजार होते हैं। असुर प्रकृति-पूजक हैं और 'सिंगबोंगा' उनके प्रमुख देवता हैं। ‘संड़सी कुटासी' इनका मुख्य सांस्कृतिक एवं धार्मिक त्यौहार है, जिसमें यह अपने लोहा बनाने से संबंधित औजारों और लोहे गलाने वाली भट्टियों की पूजा करते हैं। इसके अतिरिक्ति सरहुल, करमा व फगुआ सहित कृषि एवं वन्यजीवन से जुड़े कई पर्व और सांस्कृतिक उत्सव हैं जिन्हें ये बड़े ही उत्साह और आनंद से समारोहपूर्वक मनाते हैं।
असुरों का सांस्कृतिक जीवन बहुत ही विविधतापूर्ण है जिनमें गीत, संगीत, नृत्य, पर्व-त्योहार का प्रमुख स्थान तो है ही, इनमें वाचिक परंपरा से चली आ रही लोक कथाएँ, गाथा और लोकगीतों की भी समृद्धशाली विरासत है। यही नहीं, असुर समुदाय कृषि संबंधी समस्त कार्यों और लोहे के अलावा बांस, लकड़ी, मिट्टी आदि से जुड़ी कला में भी विशेष रूप से पारंगत हैं।
असुर यानी दुनिया के पहले लौहकला विज्ञानी
हम लोहा कमाते हैं
हम लोहा खाते हैं
हम उद्यम करते हैंए हम परिश्रम करते हैं
हमीं ईश्वर हैंए हमीं सिरजनहार हैं
(‘सोसोबोङा' से उद्धृत)
‘‘पुरखा समय से भी पहले के काल में सच्चे मनुष्य लोग आकाशलोक में रहते थे और सर्वशक्तिमान ईश्वर यानी सृष्टिकर्ता की सेवा किया करते थे। वहाँ रहते हुए किसी दिन पहली बार उनका सामना एक आईना से हुआ। आईने में जब उन लोगों ने खुद को देखा तो पाया कि वे सब हूबहू ईश्वर का प्रतिबिंब हैं। इससे उन्हें जहाँ आश्चर्य हुआ वहीं इस बात पर भी गर्व हुआ कि वे लोग ईश्वर की तरह ही दिखते हैं। ऐसा बोध होते ही मनुष्यों ने यह कहते हुए कि वे सब भी ईश्वर के समतुल्य हैं, सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता की सेवा करने से इनकार कर दिया। इससे सृष्टिकर्ता गुस्सा गए और सजा स्वरूप उन्होंने सभी मनुष्यों को आकाशलोक से बहिष्कृत कर धरती पर भेज दिया। धरती पर जिस जगह पर वे सब रहने के लिए मजबूर हुए वह स्थान 'एकासी पीड़ी और तेरासी बादी' कहलाई। मनुष्यों ने देखा कि वह स्थान लौह-पत्थरों से भरी थी। तब उन्होंने एक भट्ठी बनाई और उन अयस्क पत्थरों से लोहा बनाया। बाद में इन्हीं मनुष्यों को सृष्टिकर्ता ने असुर नाम दिया जिसे उन्होंने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया।’’[11]
![चित्र ४. सखुआपानी, नेतरहाट के असुर समुदाय लौहकला की तैयारी करते हुए, फ़ोटो: वन्दना टेटे, मई, 2019.](https://www.sahapedia.org/sites/default/files/styles/sp_inline_images/public/inline-images/Picture%204_1.jpg?itok=P1Lrqvb_)
नृतत्वविज्ञानियोंए समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों के अनुसार असुर आदिम आदिवासी समुदाय मूल रूप से धातुविज्ञानी हैं और इन्होंने ही लोहे का अविष्कार तथा शोधन कर दुनिया को ष्स्टीलष् दिया। ये दुनिया में लोहा गलाने का कार्य करने वाली दुर्लभ धातुविज्ञानी आदिवासी समुदायों में से एक हैं जिनमें यह पारंपरिक ज्ञान और कला आज तक विद्यमान है। क्योंकि इतिहासकारों और शोधकर्ताओं का मानना है "लौह धातु निर्माण की यह प्राचीन कला भारत में असुरों के अलावा अब केवल अफ्रीका के कुछ आदिवासी समुदायों में ही बची है|"[12]
पारंपरिक रूप से असुर आदिम जनजाति की आर्थिक व्यवस्था पूर्णतः धातुकर्म और लौह.निर्माण पर निर्भर थी। इस पर पिछले सौ सालों के दौरान कई विद्वानों ने प्रकाश डालते हुए उनके लोहा बनाने की विधि का परिचयात्मक विवरण प्रस्तुत किया है। ऐसे अध्ययनों में यह बताया गया है कि नेतरहाट पठारी क्षेत्र में असुरों द्वारा तीन तरह के लौह पत्थरों (अयस्कों) की पहचान की गयी थी जिनसे वे लोहा बनाया करते हैं। पहला पोला (मेग्नीटाइट), दूसरा बिच्छी (हिमेटाइट) और तीसरा गोटा (लैटेराइट से प्राप्त हिमेटाइट)। असुर अपने अनुभवों से ही इन लौह पत्थरों को पहचान लेतेए उस स्थान को चिन्हित करते और बाद में वहाँ से एकत्रित कर उसको बड़ी-बड़ी भट्ठियों में गलाकर उससे लोहा बनाया करते। "इस लोहे के खरीदार स्थानीय लोहरा लोग तो होते ही थे, जो इनसे घरेलू कृषि कार्यों के लिए विभिन्न तरह के औजार और शिकार तथा लड़ाई के लिए हथियार बनाते थे, भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर की सभ्यताएँ भी आयात करती थीं।"[13] विल्फ्रेड एचण् शौफ (1915) के अनुसार "प्राचीन रोम में किसी पूर्वी स्रोत से उस समय दुनिया में ज्ञात सर्वोत्तम किस्म के स्टील का आयात हुआ करता था और इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि वह पूर्वी स्रोत चीन नहीं भारत था|"[14] क्योंकि असुरों द्वारा निर्मित लोहा बहुत ही उत्तम किस्म का था जिसमें जंग नहीं लगता था। पुरानी दिल्ली की मेहरौली स्थित कुतबमीनार परिसर में स्थापित 'लौह स्तंभ' इसका सबसे बढ़िया सबूत है जो 1600 सालों से हवा-पानी-धूप झेलता हुआ जंगरहित जस का तस खड़ा है। सुप्रसिद्ध धातुविज्ञानी मैकविलियम का निष्कर्ष है कि "दिल्ली के लौह स्तंभ और झारखंड में निर्मित पारंपरिक लोहे में बहुत समानता है क्योंकि दोनों में मैंग्नीज का अंश जरा भी नहीं है।"[15] स्पष्ट है कि झारखंड के असुर आदिवासी समुदाय आदिम समय से ही कुशल लौह कलाकर्मी और दक्ष धातुविज्ञानी रहे हैं। जिनके लोहे का लोहा एक समय में पूरी दुनिया मानती थी।
आदिकाल से असुरों का मुख्य पेशा लौह अयस्कों से लोहा बनाने का रहा है लेकिन कालांतर में उन्होंने कृषि को भी अपनाया। असुरों ने लोहा-निर्माण के साथ-साथ खेती कैसे शुरू की इस बारे में उनके बीच एक लोककथा प्रचलित है। जिसके अनुसार ‘‘सर्वशक्तिमान ईश्वर ने उन्हें जंगल जलाकर की जाने वाली झूम (स्थानांतरित) खेती (shifting cultivation), ‘दाहा’ सिखायी। इस सीख के निर्देशानुसार एक असुर भाई और बहन ने मिलकर जंगल के एक बड़े क्षेत्र को साफ किया, फिर सभी लकड़ी, टहनियों और पत्तियों को एक स्थान पर रखकर उनमें आग लगा दी। जब सब जलकर राख हो गया और बारिश होने वाली थी तब सर्वशक्तिमान ने उन्हें ‘तुम्बा’ (लौकी) का एक बीज दिया। जिसे दोनों भाई-बहनों ने राख में रोप दिया। कुछ दिनों बाद उस बीज से एक पौधा विकसित हुआ जिसकी लताओं पर खूब सारे फूल उग आए। लेकिन चूहों ने सभी फूलों को कुतर डाला। तब सर्वशक्तिमान ने चूहे को भगाने के लिए ‘डंडा कटा’ नामक एक अनुष्ठान का आयोजन किया। इसके बाद लताओं पर फिर से फूल आए और वे फल बनकर पक गए। तब सर्वशक्तिमान ने जिस जगह पर लौकी फली थी वहाँ भाई और बहन को ‘खलिहान’ बनाने के लिए कहा। बाद में इसी विधि से असुरों ने ‘मड़ुआ’, ‘गोंदली’, ‘मक्का’, ‘मसूर’, ‘सरसों’, ‘सुरगुजा’, ‘बोदी’, ‘कुरथी’, ‘रहड़’ आदि अन्य अन्न उत्पादों की खेती की।’’[16] बावजूद इसके तथ्य यही है कि आजादी मिलने के कुछ बाद के दशकों तक नेतरहाट के असुर लोग मुख्य रूप से लौहकर्म पर निर्भर थे जैसा कि कुमार सुरेश सिंह मानते हैं। उनका कहना है, ‘‘मुंडा एवं अन्य आदिवासी समुदायों की ही तरह असुर भी महान ईश्वर से सीख प्राप्त करने के बाद कृषि में लग गए थे, हालांकि उनका कृषिकर्म आज भी आदिम प्रकार का है जो जीवन निर्वाह की दृष्टि से बहुत ही न्यूनतम है।’’[17]
विलुप्त होने को है भारत की आदिम असुर ‘लौहकला’
असुरों में साक्षरता का प्रतिशत बहुत निम्न है। युनेस्को द्वारा जारी ‘वर्ल्ड एटलस ऑफ इनडेंजर्ड लैंग्वेजेज’ के अनुसार इनकी भाषा ‘असुरी’ विलोपन के संकट का सामना कर रही है। बाहरी समाज के प्रभाव और आधुनिक जीवनशैली ने इनकी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं पर बहुत नकारात्मक असर डाला है जिससे असुर समुदाय की नई पीढ़ी अपनी लौहकला बिल्कुल भूल चुकी है। लोहा बनाने का परंपरागत पेशा अब बस दो-तीन बूढ़े ही जानते हैं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि असुरों द्वारा लोहा बनाने की आदिम और पारंपरिक तकनीक को, जो इंसानी सभ्यता और समाज के विकास की सबसे अहम परिघटना है, संरक्षित करने का प्रयास नहीं किया गया और अब यह लगभग विलोपित होने के कगार पर पहुंच चुकी है। जोभीपाट (नेतरहाट) के मेलन असुर कहते हैं, ‘‘आधुनिक शिक्षा और संस्कृति ने असुर समाज को पूरी तरह से बरबाद कर दिया है। जंगल सरकार ने छीन लिया और बॉक्साइट के लिए ज़मीन बिड़ला कंपनी ने हथिया ली। आधुनिक शिक्षा ने कुछ लोगों को शिक्षित बनाया पर उसका फायदा हम असुरों को आज तक नहीं मिला। पढ़े-लिखे असुर नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और हमारे पुरखों के लौहज्ञान तथा आजीविका के परंपरागत पेशे पर टाटा कंपनी ने कब्जा कर लिया है।’’[18] इस संदर्भ में वेरियर एलविन की यह टिप्पणी आज भी सटीक है जो उन्होंने लगभग अस्सी साल पहले की थी: ‘‘भारत सरकार ने हमेशा आदिम लोहा उद्योग में काम करनेवालों के साथ सहानुभूति तथा दूरदर्शिता का व्यवहार नहीं किया है।’’[19]
[1] जे. एच. हट्टन, कास्ट इन इंडिया, (लंदन: ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, 1961), 275.
[2] के. के. लेउबा, द असुर, (नई दिल्ली: भारतीय आदिम जाति सेवक संघ, 1963), प्रस्तावना, पृ. 11.
[3] वही, 15.
[4] वेरियर एलविन, द अगरिया, (लन्दन: ऑक्सफोर्ड प्रेस, 1942), भूमिका, पृ. 21.
[5] लेखिका स्वयं ‘खड़िया’ आदिवासी समुदाय की हैं। साथ ही, आदिवासी विषयों पर लेखन, शोध व समाज सेवा में लम्बे समय से सक्रिय हैं।
[6] सोसोबोडा या सोसाबोंगा एक लोकगाथा है जो असुर और मुंडा दोनों समुदायों में समान रूप से थोड़े से बदलाव के साथ प्रचलित है। यहाँ उद्धृत पंक्तियां पत्रकार, लेखक व कार्यकर्त्ता अश्विनी कुमार पंकज के अप्रकाशित काव्य नाटक ‘सोसोबोङा’ से ली गई हैं।
[7] जगदीश त्रिगुणायत, मुण्डा लोक कथाएँ, (पटना, बिहार: रांची सचिवालय शाखा मुद्रणालय, 1968), 127-207.
[8] विस्तृत जानकारी के लिए देखें: सरत चंद राय, मुंडाज एँड देयर कंट्री, (रांची: कैथोलिक प्रेस), 1912.
[9] लेउबा, द असुर, 3-4.
[10] TRIBES: JHARKHAND, अभिगमन तिथि 20 सितंबर 2019, <http://jharenvis.nic.in/Database/TRIBESOFJHARKHANDSTATE_2329.aspx>
[11] लेउबा, द असुर, 132-133.
[12] तथागत नियोगी ने एक्जीटर विश्वविद्यालय यूके से पीएचडी किया है। वे जब अपने पीएचडी रीसर्च के सिलसिले में 2013 में रांची (झारखंड) आए थे तब उन्होंने लेखिका से व्यक्तिगत साक्षात्कार के दौरान यह जानकारी दी थी।
[13] अश्विनी कुमार पंकज, आदिवासी कला और इतिहास के विशेषज्ञ, रांची से हुई बातचीत के आधार पर।
[14] Wilfred H Schoff, ‘The Eastern Iron Trade of the Roman Empire’, Journal of the American Oriental Society, Vol. 35 (1915): 224-239.
[15] McWilliam, ‘Indian iron making at Mirjati Chotanagpur’, 159-170.
[16] लेउबा, द असुर, 139.
[17] K. S. Singh, ‘The Munda Epic: An Interpretation’, India International Centre Quarterly, Vol. 19, No. 1/2 (1992): 85.
[18] मेलन असुर, गांव-जोभीपाट, वाया नेतरहाट, झारखंड से साक्षात्कार के दौरान मिली जानकारी के अनुसार।
[19] एलविन, द अगरिया, भूमिका, पृ. 34.
संदर्भ एवं स्रोत:-
McWilliam, A. ‘Indian iron making at Mirjati Chotanagpur.’ Journal of the Iron and Steel Institute (1920): 159–170.
McWilliam, A. ‘Indian iron making at Mirjati Chotanagpur.’ Journal of the Iron and Steel Institute (1920): 159–170.
Schoff, Wilfred H. ‘The Eastern Iron Trade of the Roman Empire.’ Journal of the American Oriental Society, Vol. 35 (1915): 224–239.
Singh, K. S. ‘The Munda Epic: An Interpretation.’ India International Centre Quarterly. Vol. 19, No. 1/2 (1992): 83–87.
एलविन, वेरियर. द अगरिया. लन्दन: ऑक्सफोर्ड प्रेस, 1942.
त्रिगुणायत, जगदीश. मुण्डा लोक कथाएँ. पटना, बिहार: राँची सचिवालय शाखा मुद्रणालय, 1968.
नियोगी, पंचानन. आयरन इन एन्शिएँट इंडिया. कोलकाता: द इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस, 1914.
राय, सरत चंद. मुंडाज एँड देयर कंट्री. राँची (झारखंड): कैथोलिक प्रेस, 1912.
राय, सरत चंद्र. द अगरिया. लन्दन: ऑक्सफोर्ड प्रेस, 1942.
लेउबा, के. के. द असुर, नई दिल्ली: भारतीय आदिम जाति सेवक संघ, 1963.
हट्टन, जे. एच. कास्ट इन इंडिया. लंदन: ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, 1961.